रिटायर जज का राज्यपाल बन जाना!

रिटायर जज का राज्यपाल बन जाना!

पर न्यायपालिका की गरिमा की चिंता किसे है!!

सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज जस्टिस एस अब्दुल नजीर को (गत 12 फरवरी को) आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया है। वे गत चार जनवरी को ही रिटायर हुए हैं। नियमतः और संविधानतः इसमें कुछ गलत नहीं है। मगर यह कुछ अटपटा तो लगता है। वैसे अब लगना नहीं चाहिए। इसलिए कि वर्ष 2014 में पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम ने केरल के राज्यपाल का पद स्वीकार कर लिया था। रिटायर होने के कुछ महीने बाद ही। वह पहला अवसर था जब किसी पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने राज्यपाल जैसे मामूली पद पर रहना को कुबूल किया था। बीते वर्ष एक और पूर्व सीजेआई जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया। संयोग से अयोध्या विवाद में राम मंदिर के पक्ष में फैसला देनेवाली पीठ में जस्टिस रंजन गोगोई के साथ ही जस्टिस नजीर भी थे। और संयोग से नोटबंदी को सरकार का ‘वैध’ फैसला बतानेवाली पीठ में भी!

इस प्रसंग में कानून मंत्री श्री रिजिजू ने 12 फरवरी को बिना किसी का नाम लिये कहा कि ‘उन्हें’ बेहतर तरीके से समझना चाहिए कि वे अब भारत को अपनी ‘निजी जागीर’ नहीं मान सकते। यह भी कि अब भारत संविधान के प्रावधानों द्वारा निर्देशित होग। उन्होंने अपने कथन को स्पष्ट तो नहीं किया, मगर वे शायद यह बताना चाह रहे थे कि ऐसी नियुक्तियों में कुछ भी असंवैधानिक नहीं है। उनका कहना गलत नहीं है। मगर संविधान निर्माताओं को यह अनुमान भी कहां रहा होगा कि कालांतर में राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष अपने विशेषाधिकारों का कैसा विलक्षण ‘सदुपयोग’ कर सकते हैं।

अभी महाराष्ट्र के राज्यपाल श्री कोशियारी ने इस्तीफ़ा दिया है। उनकी जगह झारखंड के राज्यपाल रमेश बैंस को महाराष्ट्र का राज्यपाल बनाया गया है, जो मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के बारे में चुनाव आयोग के महत्वपूर्ण बंद लिफाफे को खोले बिना चले गये। जानकारी के लिए (वरिष्ठ पत्रकार अशोक वानखेडे के मुताबिक) महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार ने विधानसभा में मनोनयन के लिए 12 व्यक्तियों का नाम राजभवन के पास स्वीकृति के लिए भेजा था। श्री कोशियारी उस पर महीनों कुण्डली मार कर बैठे रहे। फिर श्री शिंदे की सरकार बनाने के बाद नयी सरकार ने जब 12 नए नामों की सूची भेजी, राज्यपाल श्री कोशियारी ने झट उसे मंजूरी दे दी।

उत्तरप्रदेश में एक भूतो-न- भविष्यति विधानसभा अध्यक्ष हुआ करते थे- केसरीनाथ त्रिपाठी। अब दिवंगत हो चुके श्री त्रिपाठी को बाद में राज्यपाल भी बनाया गया। उत्तर प्रदेश में उनके विधानसभा अध्यक्ष रहते बसपा के करीब एक दर्जन विधायकों ने दलबदल किया. इससे, उनके समर्थन से भाजपा की कल्याण सिंह सरकार बहुमत में आ गयी। बसपा ने अपने दलबदलू विधायकों के खिलाफ कार्रवाई की, उनकी सदस्यता निरस्त करने की मांग की। श्री त्रिपाठी ने विधानसभा भंग होने तक कोई फैसला नहीं किया।
बाद में अन्य राज्यों व दलों के विधानसभा अध्यक्षों ने भी श्री त्रिपाठी के उस उदहारण का बखूबी अनुसरण किया।

कहने को विधानसभा अध्यक्ष और राज्यपाल दलगत भावना से ऊपर होते हैं। पर सच्चाई क्या है, इसे पब्लिक बखूबी जानती है। इसलिए राज्यपाल पद पर अपने खास लोगों को बिठाने के पीछे एक खास मंशा होती है. बेशक पूर्व जज के राज्यपाल बनने पर संवैधानिक रोक नहीं है। मगर सुप्रीम कोर्ट का जज; खास कर चीफ जस्टिस रिटायर होने के बाद राज्यपाल जैसा तुलना में छोटा और कम महत्व का पद स्वीकार कर लेगा, यह कभी सोचा भी नहीं जा सकता था। यही बात सेनाध्यक्ष पद पर रहे व्यक्ति के बारे में कही जा सकती है। इसी कारण अब मांग उठाने लगी है कि इस तरह के पदों पर रहे व्यक्तियों पर रिटायर होने के बाद एक निश्चित समय तक कोई लाभ का पद स्वीकार करने पर रोक लगने का प्रावधान किया जाना चाहिए।

वैसे भी, भले ही राज्यपाल और सुप्रीम के जज की नियुक्ति राष्ट्रपति ही करते हैं, मगर व्यवहार ने दोनों पदों की गरिमा में जमीन-आसमान का अंतर होता है। राज्यपाल एक तरह से केंद्र सरकार, सीधे कहें तो गृह मंत्री के आदेशपाल की भूमिका में होता है। और सुप्रीम कोर्ट का जज/चीफ जस्टिस रिटायर होकर केंद्र सरकार और सत्तरूढ़ दल के सेवक की भूमिका निभाये, यह न्यायपालिका की गरिमा के भी खिलाफ है।

संविधान में जो भी लिखा हो, उसमें निहित संदेश स्पिरिट को समझना कहीं अधिक जरूरी है।
प्रसंगवश, पांच सितंबर, ’13 को भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री (अब दिवंगत) अरुण जेटली ने राज्यसभा में रिटायरमेंट के बाद जजों की नियुक्ति के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण और रोचक बात कही थी। यह कि खुद न्यायाधीशों में रिटायर्मेंट के बाद कोई पद प्राप्त करने की इच्छा या लालसा बढ़ने लगी है। कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने अनेक फैसलों से कुछ पदों पर अवकाशप्राप्त न्यायाधीशों को नियुक्त करना एक तरह से बाध्यकारी बना दिया। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि ‘सेवानिवृत्ति से पहले के निर्णय सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरियों से प्रभावित होते हैं। ’
जाहिर है, यह एकतरफा मामला नहीं है. और सरकारों ने भी अवकाशप्राप्त न्यायाधीशों की इस लालसा का बखूबी इस्तेमाल किया। कांग्रेस की सरकारों ने तो किया ही; मौजूदा मोदी सरकार इस मामले में आगे ही है।

जो भी हो, दोनों तरफ की इस प्रवृत्ति से अंततः न्यायपालिका की गरिमा का ही क्षरण हो रहा है।

प्रसंगवश, राज्यपाल की नियुक्ति के संदर्भ में सरकारिया कमीशन (1983) ने कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें की थीं- राज्यपाल की नियुक्ति के पहले सम्बद्ध राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श किया जाना चाहिए.
-अब इसका पालन जरूरी नहीं रह गया है।
चुनाव में पराजित व्यकियों को राज्यपाल के रूप में नियुक्ति नहीं किया जाना चाहिए। -इस प्रावधान का पालन भी अब जरूरी नहीं रह गया है।

ऐसे में मेरी सुचिंतित राय है कि राज्यपाल पद की अपरिहार्यता और विधानसभा अध्यक्ष के विशेषाधिकारों पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है।
विश्वासभाजन,

श्रीनिवास

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