बिहार राज्य महादलित विकास मिशन ने सरकार को एक रिपोर्ट सौपी है , जिसमे ये उल्लेख किया गया है कि बिहार में सिर पर मैला ढोने की प्रथा अब खत्म हो चुकी है। यह सूचना मंत्रालय को भेज दी गयी है। रिपोर्ट के अनुसार इस कुप्रथा को जड़ से समाप्त करने में करीब ढाई दशक बीत गए। इस सम्बन्ध में कानून, देश में करीब 26 साल पहले लागू हुआ था।सिर पर मैला ढोने के कुप्रथा से मुक्त हुआ बिहारबिहार राज्य महादलित विकास मिशन ने सरकार को एक रिपोर्ट सौपी है , जिसमे ये उल्लेख किया गया है कि बिहार में सिर पर मैला ढोने की प्रथा अब खत्म हो चुकी है। यह सूचना मंत्रालय को भेज दी गयी है। रिपोर्ट के अनुसार इस कुप्रथा को जड़ से समाप्त करने में करीब ढाई दशक बीत गए। इस सम्बन्ध में कानून, देश में करीब 26 साल पहले लागू हुआ था।
स्थानीय खबरों के अनुसार रिपोर्ट में महादलित विकास मिशन ने राज्य सरकार को ये जानकारी दी है कि बिहार में अब कही भी मैनुअल स्केवेंगेर नहीं है। यह सूचना अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग ने केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय को भी भेज दी है। महादलित विकास मिशन के माध्यम से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग के निर्देश पर राज्य के चिन्हित 14 ज़िलों में सर्वेक्षण करवाया गया। इन ज़िलों में मुख्य रूप से शुष्क शौचालय को समाप्त करने की मुख्य रूप से प्राथमिकता दी गई थी। इन ज़िलों में राज्य के औरंगाबाद , बक्सर ,गया , अररिया , गोपालगंज ,जहानाबाद , कटिहार ,नालंदा ,पटना , पूर्णिया , रोहतास , सहरसा , सारण , सीतामढ़ी , सीवान तथा सुपौल ज़िले शामिल थे। इन सभी ज़िलों में कल्याण पदाधिकारियों ने स्थानीय प्रशाशन की मदद से मिशन के सर्वेक्षण कार्य में मदद की।
मिशन की रिपोर्ट में ये उल्लेख किया गया है कि अधिकतर ज़िलों में सिर पर मैला ढोने के काम में लगे श्रमिकों ने अपना कार्य क्षेत्र बदल लिया है। अब ये सारे श्रमिक सफाई कर्मी का काम कर रहे है।
यह प्रथा एक समय में बिहार का सबसे बड़ा मुद्दा हुआ करता था। सिर पर मैला ढोने कि प्रथा आज़ादी के बाद से ही बिहार के राजनैतिक व सामाजिक क्षेत्र का एक अहम मुद्दा था। यह प्रथा दलित राजनीति की एक धुरी बनी हुई थी।
आयुष कुमार धान