नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़ेन भारत के आसाम राज्य में भूचाल सा लाया है। हम ज़रा सा आधुनिक इतिहास का पन्ना पलट के देखें।
47 साल पहले, अगस्त 1972 में युगांडा के तानाशाह ईदी अमीन ने आदेश दिया कि देश में कई पीढ़ियों से आबाद 80 हज़ार के लगभग एशियाई लोग 90 दिन में यहां से निकल जाएं, वर्ना उनकी ज़मीन-ज़ायदाद और पूंजी ज़ब्त कर ली जाएगी।
और जो देश में रहना चाहते हैं, उन्हें फिर से नागरिकता के लिए आवेदन करना पड़ेगा और ऐसे हर आवेदन का फ़ैसला जांच के बाद मैरिट पर होगा।
ईदी अमीन ने अग्रेज़ी शासन के वक़्त से आबाद एशियन आबादी में एक बड़ी संख्या गुजराती कारोबारियों की थी। उन्हें अचानक देश से निकालने का मुख्य कारण ये बताया गया कि ये एशियन ना तो युगांडा के वफ़ादार हैं और ना ये स्थानीय अफ़्रीकी की लोगों से घुलना-मिलना चाहते हैं. इनका एक ही मक़सद है, कारोबार के बहाने अफ़्रीकियों की जेबें ख़ाली करके अपनी तिजोरियां भरना.
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने ईदी अमीन के इस निर्णय को मानवाधिकारों और नागरिकता के अंतरराष्ट्रीय उसूलों का खुला उल्लंघन बताते हुए भारतीय राजदूत को राजधानी कंपाला से वापस बुला लिया और युगांडा के राजदूत को दिल्ली से चलता कर दिया।
ईदी अमीन ने भारत और ब्रिटेन समेत पश्चिमी दुनिया के विरोध को बिल्कुल घास नहीं डाली और कहा कि युगांडा के लिए क्या अच्छा और क्या बुरा है, ये फ़ैसला सिर्फ़ युगांडा वाले ही करेंगे. उन्होंने कहा कि हम किसी ब्लैकमेलिंग में नहीं आएंगे.
80 हज़ार में से 23 हज़ार एशियाई लोगों को कागज़ात की जांच के बाद युगांडा में रहने की इजाज़त दे दी गई. मगर 60 हज़ार एशियाई लोगों को बोरिया-बिस्तर बांधना ही पड़ा।
आज से 47 साल पहले का संसार इतना कठोर नहीं था। जो एशियाई लोग निकाले गए, उनमें से ज़्यादातर पैसे-जायदाद वाले थे। इसलिए बहुतों को ब्रिटेन ने अपने यहां बुला लिया. कुछ कीनिया चले गए और वहां अपना काम फिर से शुरू कर दिया।
तीन से चार हज़ार भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बस गए.
ईदी अमीन तो कब के चले गए, लेकिन उनका भूत रह गया।
बर्मा के 10 लाख रोहिंग्या और असम में रहने वाले बीस लाख के लगभग इंसान अवैध, अप्रवासी या घुसपैठिए बन चुके हैं। ये सब धरती का बोझ और दीमक बताए जा रहे हैं।
इस वक़्त ब्रिटेन और उत्तरी अमरीका में कुल मिलाकर साठ लाख के लगभग भारतीय, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी रहते हैं।
अगर आज प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन या प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो या राष्ट्रपति ट्रंप ऐलान कर दें कि जो भी लोग 1971 के बाद से अमरीका, कनाडा या ब्रिटेन में आबाद हुए उन्हें दोबारा से नागरिकता के लिए आवेदन करना होगा, नहीं तो उन्हें निकलना होगा। तो फिर?
ऐसी नीति अगर घोषित होती है तो भारतीय गृह मंत्री अमित शाह इस पर क्या प्रतिक्रिया देंगे। स्वागत करेंगे, निंदा करेंगे या फिर चुप्पी साध लेंगे?
(एक बीबीसी पोस्ट पर आधारित )