आज 15 अगस्त है, क्या आपने राष्ट्रगान गाया? सच-सच बताइए। गाया? पूरा गाया? ठीक से गाया? बहुत बढ़िया! नहीं गाया? कोई बात नहीं, मैंने भी नहीं गाया। मैं राष्ट्रगान को देशभक्ति से नहीं जोड़ता न ही देशभक्ति को कोई ‘एक-दिवसीय कार्यक्रम’ के रूप में मानता/मनाता हूं कि 15 अगस्त को तिरंगा लहरा दिया जाए, जन-गण-मन गा लिया जाए और साल भर के लिए छुट्टी! मेरा मत है कि यदि आप नियम-क़ानूनों का पालन करते हैं, पूरा-पूरा टैक्स चुकाते हैं, रिश्वत नहीं लेते और नहीं देते, धर्म, जाति, बोली, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करते और नफ़रत और हिंसा नहीं फैलाते तो आप सच्चे देशभक्त हैं भले ही आप ‘जन-गण-मन’ गाएं या न गाएं। (पढ़ें – एक देशद्रोही ने कैसे मनाया 15 अगस्त)
लेकिन आज के मेरे ब्लॉग का विषय दूसरा है। विषय यह है कि क्या आपको ‘जन-गण-मन’ का पूरा अर्थ पता है। क्या आपको पता है कि ‘जन-गण-मन’ में किसकी जय बोली जा रही है? क्या भारत की या भारत की जनता की? या जन-गण-मन के अधिनायक की जो भारत का भाग्यविधाता भी है? यदि जन-गण-मन के अधिनायक की जय है तो यह अधिनायक कौन है? कौन है यह भारत का भाग्यविधाता जिसकी जय-जयकार हम यह गान गाते वक्त करते हैं? कभी सोचा है? नहीं सोचा तो आइए, आज जानते हैं कि राष्ट्रगान में वर्णित यह अधिनायक कौन है।
आइए, पहले टैगोर की आवाज़ में यह गीत सुनते हैं और फिर नीचे राष्ट्रगान की पंक्तियां दोहराते हैं।
जन-गण-मन अधिनायक जय हे,
भारत भाग्यविधाता,
पंजाब सिंध गुजरात मराठा,
द्राविड़ उत्कल बंग,
विंध्य हिमाचल यमुना गंगा,
उच्छल जलधि तरंग,
तव शुभ नामे जागे,
तव शुभ आशीष मांगे,
गाहे तव जय गाथा,
जन-गण मंगलदायक जय हे
भारत भाग्यविधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय-जय-जय-जय हे।
ऊपर की पहली तीन पंक्तियों पर ध्यान दें – जन-गण-मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्यविधाता… यानी स्पष्टतः यह गीत ‘जन-गण-मन के अधिनायक’ की जय-जयकार करता है जो ‘भारत का भाग्यविधाता’ है।
आप यह भी देखें कि शुरुआती पंक्तियों में जिस अधिनायक की बात हो रही है और उसे भारत का भाग्यविधाता बताया जा रहा है, उसी को नीचे मंगलदायक बताते हुए, उससे आशीर्वाद मांगा जा रहा है, उसकी गौरवगाथा का गान किया जा रहा है और उसकी जय की कामना की जा रही है।
सोचिए, आख़िर कौन है वह व्यक्ति जिसे रवींद्रनाथ टैगोर ने हमारे देश का भाग्यविधाता और मंगलदायक बताया है? वह ख़ुद भारत की जनता तो नहीं हो सकती क्योंकि जनता कभी अधिनायक नहीं होती। क्या आपकी कल्पना में ऐसा कोई व्यक्ति आता है जो हमारे देश का भाग्यविधाता हो? आज की तारीख़ में बहुत से लोग नरेंद्र मोदी को भारत का अधिनायक (नेता) और भाग्यविधाता मानते होंगे और एक ज़माने में जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी को भारत का अधिनायक और भाग्यविधाता समझा जाता था। लेकिन जब 1911 में यह गीत लिखा गया था, तब देश का अधिनायक और भाग्यविधाता कौन था?
विकिपीडिया के अनुसार यह गीत 11 दिसंबर 1911 को लिखा गया और 27 दिसंबर 1911 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया। तो क्या यह गीत कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष पंडित बिशन नारायण धर के लिए था जिसे आज कोई नहीं जानता? या वह जॉर्ज पंचम के लिए था जो 30 दिसंबर को ही कलकत्ता पधारनेवाले थे? अधिनायक! भारत भाग्यविधाता! मंगलदायक! सारे के सारे शब्द ब्रिटिश सम्राट के लिए उपयुक्त लगते हैं।
यह इसलिए भी सही लगता है कि तब के ब्रिटिश स्वामित्व वाले अंग्रेज़ी अख़बारों ने भी इस गीत को उसी अर्थ में लिया। देखिए, तब के अंग्रेज़ी अख़बारों ने क्या लिखा था –
“The Bengali poet Rabindranath Tagore sang a song composed by him specially to welcome the Emperor.” (Statesman, Dec. 28, 1911)
“The proceedings began with the singing by Rabindranath Tagore of a song specially composed by him in honour of the Emperor.” (Englishman, Dec. 28, 1911)
“When the proceedings of the Indian National Congress began on Wednesday 27th December 1911, a Bengali song in welcome of the Emperor was sung. A resolution welcoming the Emperor and Empress was also adopted unanimously.” (Indian, Dec. 29, 1911)
लेकिन राष्ट्रीय मीडिया कुछ और कह रहा था।
28 दिसंबर 1911 के अमृत बाजार पत्रिका के अनुसार, ‘कांग्रेस पार्टी के अधिवेशन की शुरुआत ईश्वर की प्रशंसा में गाए गए एक बंगाली मंगलगान से हुई। इसके बाद किंग जॉर्ज पंचम के प्रति निष्ठा जताते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया। बाद में उनका स्वागत करते हुए एक गाना गाया गया।’
The Bengalee ने लिखा – ‘कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन महान बंगाली कवि रवींद्रनाथ टैगोर के लिखे एक गीत से प्रारंभ हुआ। उसके बाद किंग जॉर्ज पंचम के प्रति निष्ठा व्यक्त करते हुए एक प्रस्ताव पारित हुआ।’
George V
1912 में जब जॉर्ज पंचम एवं रानी कलकत्ता आए।
यहां तक कि कांग्रेस की अपनी रिपोर्ट में भी यह नहीं लिखा है कि टैगोर ने जॉर्ज पंचम के स्वागत में यह गीत लिखा था। रिपोर्ट के अनुसार कांग्रेस के 28वें वार्षिक अधिवेशन के पहले दिन वंदे मातरम के गायन के बाद कार्यवाही शुरू हुई। दूसरे दिन बाबू रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा गाए गए एक देशभक्तिपूर्ण गीत के बाद कामकाज शुरू हुआ। उसके बाद शुभचिंतकों के संदेश पढ़े गए और किंग जॉर्ज पंचम के प्रति निष्ठा व्यक्ति करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया। उसके बाद किंग जॉर्ज पंचम और क्वीन मेरी का स्वागत करते हुए एक गीत गाया गया।
अब ऐसे में यह कहना मुश्किल है कि टैगोर ने यह गीत राजा के स्वागत में लिखा था या नहीं।
मगर यह सवाल तब भी बरकरार है कि यदि यह गीत राजा के लिए नहीं था तो किसके लिए था। और इसका जवाब रवींद्रनाथ से बेहतर कौन दे सकता है? चलिए, उन्हीं से जानते हैं कि इस गीत का अधिनायक कौन है।
जन-गण-मन का अंग्रेज़ी अनुवाद स्वयं रवींद्रनाथ द्वारा।
जन-गण-मन का अंग्रेज़ी अनुवाद स्वयं रवींद्रनाथ द्वारा
जन-गण-मन का अंग्रेज़ी अनुवाद स्वयं रवींद्रनाथ द्वारा
रवींद्रनाथ के इस गीत पर जब विवाद उठा तो उन्होंने 10 नवंबर 1937 को पुलिन बिहारी सेन को लिखे एक पत्र में यह सफ़ाई दी – ‘महामहिम के कार्यालय में काम करनेवाले एक उच्चाधिकारी ने जो मेरा भी मित्र था, मुझसे आग्रह किया कि मैं सम्राट के स्वागत में एक गीत लिखूं। मैं इस अनुरोध से चकित था। इसने मेरे हृदय में एक बहुत बड़ी हलचल-सी मचा दी। उस प्रचंड मानसिक उथल-पुथल के परिणामस्वरूप ‘जन-गण-मन’ का जन्म हुआ जिसमें मैंने भारत के उस भाग्यविधाता का जयगान किया जिसने उत्थान और पतन के हर दौर में, कभी सीधे और कभी टेढ़े-मेढ़े रास्तों से चलते हुए युगों-युगों से भारतीय रथ की कमान थाम रखी है। वह भाग्यविधाता, समस्त भारत के मन को पढ़नेवाला, वह चिरंतन पथ प्रदर्शक कभी भी जॉर्ज पंचम, जॉर्ज षष्ठम या और कोई जॉर्ज नहीं हो सकता था। मेरे उस सरकारी मित्र को भी इस गीत का मर्म समझ में आ गया था। आखिरकार सम्राट के प्रति अत्यधिक प्रशंसाभाव रखने के बावजूद उसमें सामान्य बुद्धि की कोई कमी नहीं थी।’
19 मार्च 1939 में टैगोर ने एक और पत्र में लिखा – ‘मैं इसे अपना अपमान समझता हूं यदि मुझे उन लोगों के आरोपों का जवाब देना पड़े जो यह समझते हैं कि इस क़िस्म की अपार मूर्खता कर सकता हूं कि जॉर्ज चतुर्थ या पंचम की प्रशंसा में उन्हें मानव इतिहास के प्रारंभ काल से लेकर आज तक असंख्य यात्रियों का पथ प्रदर्शन करनेवाला सारथि बताऊं।’
अब आप पूछेंगे कि ‘असंख्य यात्रियों का पथ प्रदर्शन करनेवाला यह सारथि’ कहां से आ गया? अब तक तो हम जिस ‘जन-गण-मन’ को जानते हैं, उसमें अधिनायक, भाग्यविधाता और मंगलदायक का ज़िक्र है, सारथि का नहीं। तो जिनको मालूम नहीं है, उनको बता दूं कि ‘जन-गण-मन’ में कुल मिलाकर पांच पद हैं। राष्ट्रगान में केवल पहला पद लिया गया है। हमें मामले की पूरी पड़ताल के लिए पांचों पद पढ़ने होंगे ताकि हम जान सकें कि क्या टैगोर जो कह रहे हैं, वह सही है।
अहरह तव आह्वान प्रचारित, शुनि तव उदार वाणी
हिन्दु, बौद्ध, शिख, जैन, पारसिक, मुसलमान, ख्रिस्टानी
पूरब-पश्चिम आशे
तव सिंहासन पाशे
प्रेमहार हय गांथा।
जनगण-ऐक्य-विधायक जय हे
भारत भाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे
जय-जय-जय-जय हे
पतन-अभ्युदय-बन्धुर-पंथा, जुग-जुग धावित जात्री,
हे चिर-सारथि, तव रथचक्रे मुखरित पथ दिनरात्रि
दारुण विप्लव-माझे, तव शंखध्वनि बाजे,
संकट-दुःख-त्राता।
जन-गण-पथ-परिचायक जय हे
भारत भाग्यविधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय-जय-जय-जय हे
घोर-तिमिर-घन-निविड़-निशीथे, पीङित मुर्च्छित-देशे
जाग्रत छिल तव अविचल मंगल, नतनयने अनिमेषे
दुःस्वप्ने आतंके, रक्खा करिले अंके
स्नेहमयी तुमि माता।
जन-गण-दुःखत्रायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय-जय-जय-जय हे।।
रात्रि प्रभातिल उदिल रविच्छवि, पूर्ब-उदय-गिरि-भाले,
गाहे विहंगम, पुण्य समीरण, नवजीवन रस ढाले,
तव करुणारुण रागे, निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा।
जय-जय-जय हे, जय राजेश्वर,
भारत भाग्यविधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे।।
अब इस पूरे गीत का अर्थ लिखने बैठूंगा तो न केवल यह ब्लॉग लंबा हो जाएगा बल्कि कइयों को यह निरर्थक भी लगेगा। जिनको इसका अर्थ जानने की इच्छा हो, वे यह विडियो देख लें।
हमारा काम तो उन्हीं पंक्तियों से चल जाएगा जिनको मैंने बोल्ड कर रखा है ताकि हम जान सकें कि रवींद्रनाथ ने क्या-क्या कहकर उस अधिनायक का जयगान किया है।
सारथि का ज़िक्र तीसरे पद की पहली दो पंक्तियों में आया है जिसका अर्थ है – जीवन उत्थान और पतन के बीच एक अंधकारमय रास्ता है जिसमें हम यात्रियों ने युगों-युगों से तुम्हारे रथ के उन पहियों का अनुगमन किया है जो दिन और रात को प्रतिध्वनित करते हैं। इसी पद में आगे इस सारथि को जन-गण-पथ परिचायक (मार्गदर्शक) कहा गया है।
इस पद के हिसाब से तो रवींद्रनाथ सही साबित होते हैं क्योंकि कोई भी राजा युगों-युगों तक किसी प्रजा का पथप्रदर्शक नहीं हो सकता। लेकिन इसी गीत में आखिरी पद में इस अधिनायक को राज-राजेश्वर भी कहा गया है – जय-जय-जय हे, जय
राजेश्वर…
इसे पहले पद में लिखे – ‘पूरब-पश्चिम आशे, तव सिंहासन पाशे, प्रेमहार हय गांथा’ से जोड़िए। अर्थ है – पूर्व और पश्चिम तुम्हारे सिंहासन के पास आते हैं और तुम्हें प्रेम की माला पहनाते हैं। हम जानते हैं कि ब्रिटेन का शासन पूर्व से पश्चिम तक फैला हुआ था। तो क्या यह उसकी ओर इशारा है?
स्पष्ट तौर पर कोई निर्णय नहीं दिया जा सकता लेकिन मेरी धारणा है कि सच कहीं बीच में है। मुझे लगता है कि जब रवींद्रनाथ से कहा गया कि वह सम्राट के लिए कोई स्वागत गीत लिखें तो उन्होंने एक ऐसा गीत लिखा जो द्विअर्थी है। कोई ऊपरी तौर पर देखे तो इसे राजा का स्वागत गान समझे और कोई गहराई में जाए तो इसे एक देशगीत समझे।
हमने यह भी देखा कि उस दौर में सम्राट की प्रशंसा करना कोई देशविरोधी कार्य नहीं समझा जाता था। 1911 के कांग्रेस के उस अधिवेशन में जिसमें टैगोर ने यह गीत गाया, बच्चों ने अलग से राजा और रानी की प्रशंसा और स्वागत में गीत गाया था। साथ में इसी आशय का एक प्रस्ताव भी पास हुआ था। सो हो सकता है कि टैगोर के इस गीत को अंग्रेज़ी साम्राज्य ने स्वागत गीत के रूप में ही लिया हो। ऊपर हमने देखा कि ब्रिटिश अंग्रेज़ी अख़बारों में जो ख़बरें छपीं, उसमें यही लिखा हुआ था।
इससे टैगोर का मक़सद पूरा हो गया। राजा और उनके अधिकारी यह समझे कि उनके सम्मान में यह गीत लिखा गया और टैगोर भी ख़ुश कि सीधे-सीधे उन्होंने जॉर्ज पंचम का नाम लेकर कुछ नहीं लिखा। ध्यान देने की बात है कि उन्होंने उस दौर में कोई स्पष्टीकरण देना भी उचित नहीं समझा और न ही ब्रिटिश अंग्रेज़ी अख़बारों में छपी ख़बरों का खंडन करना आवश्यक समझा शायद यह सोचकर कि मामले पर भ्रम बना रहे तो अच्छा ही है। सफ़ाई देकर क्यों शासन और शासक से पंगा लेना!
आप देखिए कि टैगोर ने इस गीत के बारे में स्पष्टीकरण 1937 और 1939 में जाकर दिया जब इस घटना को 25 साल हो गए थे। तब तक आज़ादी का आंदोलन बहुत आगे बढ़ चुका था, जलियांवाला बाग़, असहयोग आंदोलन, चौरीचौरा कांड, भगत सिंह वग़ैरा को फांसी के बीच 1930 के कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वराज की घोषणा हो चुकी थी। यानी अब राजा या ब्रिटिश राज-समर्थक छवि बुरी मानी जाती थी। इसीलिए उनपर आरोप भी लगे और टैगोर ने इस पर सफ़ाई देना सही और ज़रूरी भी समझा।
गीत के पांचों पदों को पढ़कर और टैगोर के स्पष्टीकरण के बाद यह कहा जा सकता है कि टैगोर का यह गीत निश्चित तौर पर जॉर्ज पंचम की प्रशस्ति में नहीं लिखा गया है क्योंकि एक नश्वर राजा युगों-युगों तक किसी प्रजा का पथप्रदर्शन नहीं कर सकता। इस गीत में जिसकी जय-जयकार की गई है, वह कोई व्यक्ति नहीं बल्कि एक अदृश्य कालपुरुष है जो टैगोर की भाषा में ‘युगों-युगों से भारत और भारतीयों को मार्ग दिखाता आया है, जिसने जन-गण के दुःखों का शमन किया है, जिसने भारतीयों को एकता के सूत्र में पिरोकर रखा है और जो भारत का एक ऐसा भाग्यविधाता है जिसने उत्थान और पतन के हर दौर में, कभी सीधे और कभी टेढ़े-मेढ़े रास्तों से चलते हुए युगों-युगों से भारतीय रथ की कमान थाम रखी है।’
तो चलिए, आज जबकि आपने जान लिया कि हम राष्ट्रगान गाते समय किस अधिनायक की जय-जयकार करते हैं तो अगली बार जब कभी राष्ट्रगान गाएं तो एक-एक शब्द का अर्थ समझते हुए पूरे मन से गाएं।
जय हिंद।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं
लेखक
नीरेंद्र नागरनीरेंद्र नागर
नीरेंद्र नागर नवभारतटाइम्स.कॉम के पूर्व संपादक है।
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