आदिवासी लोग जो किसी देश के मूल निवासी होते है यकीनन दुनिया के सबसे कमजोर लोगों में हैं। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अब यह स्वीकार करता है कि उनके अधिकारों की रक्षा करने और उनको अपनी विशिष्ट संस्कृतियों और जीवन के तरीके को बनाए रखने के लिए विशेष उपायों की आवश्यकता होती है।
इन जनसंख्या समूहों की जरूरतों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए, प्रत्येक 9 अगस्त को विश्व के स्वदेशी लोगों को अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाई जाती है, जिसे 1982 में जीनीवा में आयोजित स्वदेशी आबादी पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की पहली बैठक की मान्यता के लिए चुना गया था।
इस वर्ष विश्व आदिवासी दिवस का थीम है : आदिवासी भाषाएँ की स्थिति।
जब हम आदिवासी का नाम लेते है तो हमारे मन में इसका संदर्भ सीधे –सीधे जंगलो से होता है। एक ओर जहां पर पेड़ो की कटाई कर के शहरो का विकाश किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर आदिवासी को शहरीकरण के नाम पर उजारा जा रहा है और उन्हे उनकी संस्कृति, स्भ्यता शहरीकरण परिवेश मे बदलने का पर्याश किया जा रहा हैं, जिसके वजह से अपनी संस्कृति और भाषा को भूलते जा रहे हैं।
बहुत सारे आदिवशीओ को यह कर के उजारा जा रहा हैं कि यह ज़मीन सरकार कि है और उन ज़ामिनो को आदिवशीओ को उजार कर उधोयपती को बेच दिया जाता हैं। जिससे वो अपने परिवार, संबंधी सभी से दूर हो जाते हैं।
आदिवासियो को सरकार के द्वारा लेश मात्र का मुवाओजा दे कर उन्हे बेघर कर दिया जाता हैं।
लेकिन 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के रूप मे मनाया जा रहा हैं। बिहार मे कई जगह आज के दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ जागरूकता रैली निकली जाती है, जिसमे उनके अधिकारों के मांग को लेकर कार्यकर्म आयोजित किया जाता हैं।
जिसका प्रभाव बिहार के कई व्यवसायिक क्षेत्र जैसे -शिक्षा, चिकित्सा, सामाजिक कार्य क्षेत्रों मे इनका योगदान देखने को मिलता है।
नेहा निधि