सामने वाला आपकी बात किस तरह से समझ या अपना रहा है, यह एक हद तक आप पर निर्भर करता है।
बातो की प्रस्तुति बहुत मायने रखती है, बातो को अलग-अलग तरह से बताया जा सकता है।
जैसे कि कोई हमारे ज़िन्दगी में भी ऐसा हुआ होगा कि कोई सामने से बात ऐसे बताये जैसे कुछ बहुत बुरा हुआ हो, पर बाद में पता चलता है कि इतनी बड़ी बात ही नहीं थी। ऐसा बताया गया कि हमें लगा कुछ बड़ी बात होगी।
उस इंसान के साथ रहने के बाद हम समझ लेते है कि यह उसकी आदत है, और परिणाम स्वरूप हम उसकी बात पर ज्यादा ध्यान नहीं देते।
यही हो रहा है मीडिया के साथ, छोटी से छोटी बात को बढ़ा चढ़ा के बोला जाता है, “गौर से देखिए इस दुनिया को, ये वही दुनिया है जो खत्म होने वाली है…।”
चीज़े थोपी क्यों जा रही है? चिल्लाने या बार बार बोलने से कोई चीज़ बड़ी नहीं हो जाती, बल्की शायद उसका मूल्य कम हो जाता है।
मेरे उम्र के बहुत लोगो से बात करने के बाद मुझे पता चला कि मैं अकेले नहीं हूं जिसे टी वी देखना आजकल कुछ पसंद नहीं आ रहा, लगभग सभी का कहना था कि इतना बढ़ा चढ़ा के एक ही चीज़ बार-बार बोली जाती है, वो भी ऐसे की सामने वाला डर जाए।
डिबेट शो में चीखना चिल्लाना या उठ कर चले जाना जैसे आम बात हो गयी हो। रात 9 बजे न्यूज़ चैनल में बाकी चैंनलों से ज्यादा एंटरटेनमेंट देखने को मिलता है। सवाल ये उठता है कि क्या न्यूज़ इंटरटेन्मेंट के लिए होता है या लोगो को जागरूक करने के लिए, उन्हें बताने के लिए की उनके आस-पास क्या हो रहा है?
स्टूडियो के गरम माहौल में मुद्दा कहीं ठंडा सा पड जाता है, रिपब्लिक टी वी के लेट्स डिबेट में तो गेस्ट्स को अपनी बात रखने का समय भी नहीं दिया जाता है।
आज, नेशन वांट्स टू नो की क्या ये सही है, क्या इसी के लिए प्राइम टाइम डिबेट्स देखा जाए?
रूचिका कुमारी
भरतीय जन संचार संस्थान