किन्नरो की दुर्दशा, अंग्रेज़ो की भेट?

किन्नरो की दुर्दशा, अंग्रेज़ो की भेट?

सिंगापुर के डॉ. हिंकी ने किन्नरों से संबंधित अंग्रेजों के शासनकाल के समय के कानूनों का इस समुदाय पर पड़ने वाले असर का अध्ययन किया और वह अपने किताब ‘गवर्निंग जेंडर एंड सेक्शुअलिटी इन कॉलोनियल इंडिया’ मे किन्नरो पर ब्रिटिश न्यायाधीशों के अत्याचार का वर्णन किया।  

वह एक केस का जिक्र करते हुये बताती है की अगस्त 1852 मे उत्तर प्रदेश मे भूरा नाम के एक किन्नर की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी पर केस की सुनवाई के दौरान उसकी मौत पर कम बात करते हुये, उसकी समुदाय को अनैतिकता से जोड़ कर आपराधिक बताया गया।  

किन्नरो को समलैंगिक, भिखारी और अप्राकृतिक वेश्याएं कहा गया। एक जज ने इस समुदाय को  कलंक बताया और वही दूसरे ने इस समुदाय के अस्तित्व को ब्रिटिश सरकार के लिए निराशाजनक बताया था।  

ब्रिटिश अधिकारियों का मानना था किन्नर शासन करने योग्य नहीं थे। विश्लेषकों ने किन्नरों को गंदा, बीमार, संक्रामक रोगी और दूषित समुदाय के तौर पर अंकित किया।  

इन्हें पुरुषों के साथ संबंध रखने वाले समुदाय की तरह पेश किया। अधिकारियों ने कहा कि यह समुदाय आम लोगों की नैतिकता और राजनीतिक सत्तातंत्र के लिए ख़तरा है।

उस समय में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में 2,500 किन्नरे थीं। भूरा के हत्या के कुछ सालों बाद किन्नरों की संख्या को कम करने के अभियान चलाया गया जिसका उद्देश्य इस समुदाय का खत्म करना था।

1871 के विवादास्पद कानून के तहत किन्नरो को आपराधिक समुदाय माना गया। इस कानून के चलते पुलिस ने इस समुदाय पर निगरानी बढ़ा दी और उनकी निजी जानकारी लेना शुरू कर दिया, दस्तावेजों में इन्हे अपराधी और सेक्शुअली विकृत शख़्स के तौर पर संबोधित किया गया। पुलिस कानून का इस्तेमाल उन लोगों के खिलाफ भी करने लगी थी जिनके जेंडर की स्पष्ट पहचान करने में मुश्किल होती थी।

किन्नरों को महिलाओं के कपड़े पहनने की आजादी नहीं थी और न ही वे सार्वजनिक तौर पर नाचने गाने का काम कर सकते थे।  ऐसा करने पर उन पर उन्हे जेल भेजने का प्रावधान लागू था। अगर महिला के कपड़े और आभूषण पहने हिजड़े मिल जाते थे तो पुलिस उनके लंबे बालों को काट देती थी और कई बार कपड़े भी उतरवा लेती थी।

इन सबके बीच में समुदाय ने मेलों में सार्वजनिक तौर पर नाचने गाने के अपने अधिकार को बहाल करने वाली याचिका भी दाखिल कि।

डॉ. हिंकी के अनुसार यह याचिका आर्थिक तंगी और बदहाली के चलते दिया गया था। 1870 के मध्य में, गाजीपुर के हिजड़ों ने भूखे मरने की शिकायत भी दर्ज कराई थी।

इस दौरान अधिकारियों ने हिजड़ों के साथ रहने वाले बच्चों को अपने कब्जे में करना शुरू किया।  अधिकारियों का कहना था कि वे बच्चों को बदनामी भरे जीवन से बचा रहे हैं, अगर कोई हिजड़ा छोटे बच्चे या लड़के के साथ पकड़ा जाता तो उसे जेल जाना पड़ता था

डॉ. हिंक  बच्चो का जिक्र करते हुये कहती है इन बच्चों में ज्यादातर शिष्य थे। इसके अलावा अनाथ बच्चे, गोद लिए बच्चे और गुलामी करने वाले बच्चे शामिल थे। इन सबके साथ संगीतकारों के बच्चे भी थे जो हिजड़ों के साथ गाते-बजाते थे और अपने परिवार के साथ-साथ हिजड़ों के बीच भी रहते थे। कुछ हिजड़े विधवाओं के साथ रहा करते थे तो विधवाओं के भी बच्चे होते थे।

ब्रिटिश अधिकारियों ने इन हिजड़ों के साथ रहने वाले बच्चों को संक्रामक बीमारी का एजेंट और नैतिकता के लिए ख़तरा बताया।

डॉ. हिंकी बताती हैं, “हिजड़ों से भारतीय लड़कों को खतरे को लेकर औपनिवेशिक दौर में इतनी चिंता थी कि समुदाय के साथ रहने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ा चढ़ाकर बताई गई थी.”

आंकड़ों के मुताबिक, 1860 से 1880 के बीच, हिजड़ों के साथ करीब 90 से 100 लड़के रह रहे थे।  इनमें से कुछ को ही नपुंसक बनाया गया था और ज्यादातर अपने असली माता-पिता के साथ रहते थे।

डॉ. हिंकी के अनुसार, “उस क़ानून का शॉर्ट टर्म उद्देश्य सार्वजनिक तौर पर हिजड़ों की उपस्थिति को समाप्त करके उनका सांस्कृतिक उन्मूलन करना था।  ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं है कि लॉन्ग टर्म उद्देश्य हिजड़ों का अस्तित्व मिटाना था।  औपनिवेशिक काल के उच्च पदस्थ अधिकारियों की नज़र में हिजड़ों का छोटा सा समूह ब्रिटिश सत्ता प्रतिष्ठानों को खतरे में डाल सकता था। “

इस काले अतीत के बावजूद, हिजड़े अपना अस्तित्व बचाने में कामयाब रहे। उन्होंने पुलिस को चकमा दिया, अपनी सार्वजनिक मौजूदगी को कायम रखा और खुद को बचाए रखने की रणनीति पर काम करते रहे।

डॉ. हिंकी बताती हैं कि हिजड़े दक्षिण एशिया में सार्वजनिक जगहों पर लोक संस्कृति, एक्टिविज्म और राजनीति सबमें सक्रिय उपस्थिति बनाए हुए हैं।

कई संस्कृतियों में किन्नरों की बेहद अहम भूमिका है। दक्षिण एशियाई देशों में यह मानना है कि जनन क्षमता को प्रभावित करने का आशीर्वाद और अभिशाप यह समुदाय दे सकता है।  

आज के दौर में, किन्नरों को ट्रांसजेंडर कहा जाता है। ट्रांसजेंडरों में उभयलिंग (इंटरसेक्स पीपल) भी शामिल हैं 2014 में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने आधिकारिक तौर पर तीसरे लिंग को स्वीकार किया, इसी तीसरे लिंग में ही किन्नर शामिल हैं। उनका संघर्ष अब भी जारी है, क्योकि लोग इन्हे अभी भी स्वीकार नहीं कर रहे है।